राजतंत्र की इमारत बनाम लोकतंत्र की इमारत

राजतंत्र का दौर रहा हो चाहे गुलामी का दौर सबकी सोच थी कि हमारा शासन लंबे समय तक चलेगा। चाहे चले न चले लालच तो यहीं रहती थी ।होता भी कुछ ऐसा ही था कुछ का शासन लंबा चला पीढ़ी दर पीढ़ी चला किसी का  जल्दी समाप्त हो गया लेकिन इन सब ने जो इमारतें बनवाई यह सोचकर बनवाई कि सालों-साल हमें इन इमारतों में रहना है इनका उपयोग करना और बाद में हमारी पीढ़ी इनका उपयोग करेगी। इस सोच के कारण राजतंत्र की लगभग सभी इमारतें बुलंद बनी। ऐसी जिन इमारतों को थोड़ा भी रखरखाव का सुख मिला तो आज भी बुलंदी के साथ खड़ी है ।सैकड़ों साल की बनी ऐसी इमारतें  खड़ी हैं तो पुल भी काम कर रहे हैं ।फिर दौर आया स्वतंत्र भारत का बन गई पंचवर्षीय योजना। सरकार का चुनाव हर 5 वर्षों में होने लगा शुरू के वर्षों में तो सत्ताधारी दल और उसके नेता को यह विश्वास रहा कि वर्षों तक हमारी सरकार चलेगी और इस सोच के कारण कुछ इमारतें, पुल, बांध इस सोच के बने कि इन्हें सालों-साल चलना है लेकिन धीरे-धीरे स्थित बदली और एक समय ऐसा भी आ गया जहां सरकारों को यह लगने लगा कि हम अगर 5 वर्ष भी चल जाए तो बड़ा सौभाग्य।जो निर्माण कार्य इस दौर में हुए और उसके बाद जो आज के दौर तक हो रहे हैं वह सब इस सोच की पैदाइश हो गए हैं कि हम 5 साल रहें कि न रहें तो ऐसे निर्माण कार्य हो रहे हैं जो बनते ही अपनी जिंदगी पूर्ण की गिनती चालू कर देते हैं ।इमारतें टपकने लगती हैं तो पुलों में दरारें आ जाती हैं और बांधों में पानी ही नहीं रुकता। राजतंत्र की इमारतें जहां पुस्तों के लिए बनती थी वहीं आज प्रजातंत्र में बन रही इमारतें पांच वर्ष पूरा कर लेती हैं तो अच्छे निर्माण का खिताब पा जाती हैं ।पांच वर्ष बाद इनके जीर्णोद्धार की संविदा लगने का पहले से ही निर्णय रहता है जैसा भरोसा वैसा निर्माण ।पांच वर्ष के लिए चुनी गई सरकार और जनप्रतिनिधि ऐसा काम करते हैं जिससे निर्माण किसी तरह पांच वर्ष का जीवन जी ले। राजतंत्र या स्वतंत्रता के पहले की आपको हजारों इमारतें  ऐसी मिल जाएंगी जो आज भी बुलंद है लेकिन 72 साल पुरानी इमारत, पुल सही सलामत मिलना नामुमकिन जैसा है।नयी इमारतें तो रखरखाव के भार से ही टूटने लगती हैं और पुरानी का अगर कभी रखरखाव हो गया तो फिर वह पुनः नयी की तरह चमकने लगती है ।नई इमारतों का रुदन देखकर ऐसा लगता है कि यह भी  संस्कारों के संकट को झेल रही हैं । पहले कहा जाता था कि प्राण जाए पर वचन न जाए और अब यह है कि दस रुपये में लिखा गया बचन भी दस रुपये के बराबर नहीं है।
अजय नारायण त्रिपाठी ” अलखू “
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