व्यवस्था समतायुक्त और शोषणमुक्त हो-आरएसएस सरसंघचालक श्री मोहन भागवत
मानवता के लिये होगा सिंहस्थ का सार्वभौम संदेश-मुख्यमंत्री श्री चौहान
निनौरा-उज्जैन में अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ आरंभ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने कहा है कि व्यवस्था समतायुक्त और शोषणमुक्त होनी चाहिये। जब तक सभी को सुख प्राप्त नहीं होता तब तक शाश्वत सुख दिवास्वप्न है। विज्ञान जितना प्रगट हो रहा है उतना आध्यात्म के निकट आ रहा है। श्री भागवत उज्जैन के समीप निनोरा में सिंहस्थ का सार्वभौम संदेश देने के लिए आज से शुरू हुए तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ के शुभारंभ सत्र को संबोधित कर रहे थे।
श्री भागवत ने कहा कि भारत की परंपरा के अनुसार सारे जीव सृष्टि की संतानें हैं। मनुष्यता का संस्कार देने वाली सृष्टि है। मध्यप्रदेश में कुंभ की वैचारिक परंपरा को पुनर्जीवित किया जा रहा है। आज दुनियाभर के चिंतक, विचारक एक हो गये हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कहा गया है कि विकास करते समय प्रत्येक देश की प्रकृति का विचार करना चाहिए। ऐसा ही परिवर्तन दुनिया की वैचारिकता में दिखाई दे रहा है। संपूर्ण अस्तित्व की एकता को मानने की ओर दुनिया के निष्पक्ष चिंतकों की प्रवृत्ति हो रही है। विविधता को स्वीकार किया जा रहा है। संघर्ष के बजाय अब समन्वय की ओर जाना पड़ेगा। आज का विज्ञान भी इस परिवर्तन का एक कारण है। सनातन परंपरा में इन सत्यों की बहुत पहले से जानकारी है। आज के परिप्रेक्ष्य में हमें सनातन मूल्यों के प्रकाश में विज्ञान के साथ जाना होगा। यह करके विश्व की नई रचना कैसी हो, इसका मॉडल अपने देश के जीवन में देना होगा। तत्व ज्ञान और विज्ञान दोनों के आधार चिंतन है। विज्ञान और आध्यात्म दोनों सत्य को जानने के दो तरीके हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि धर्म का मूल्यांकन विज्ञान की कसौटी पर करना चाहिए। आज की समस्याओं का समाधान विज्ञान और आध्यात्म दोनों के समन्वय से करना होगा। उन्होंने कहा कि सुख तो बढ़े, पर नीति की हानि नहीं हो, इसका ध्यान रखना भी जरूरी है।
श्री भागवत ने कहा कि मुक्ति के लिये ज्ञान, भक्ति और कर्म की त्रिवेणी जरूरी है। धर्म के चार आधार हैं सत्य, करूणा, स्वच्छता और तपस। मानव-कल्याण के बिना सृजनहीन अविष्कार व्यर्थ है। आध्यात्म और विज्ञान दोनों का सहारा लेकर चिंतन करना होगा। चिंतन के बाद आचरण करना होगा। चिंतन आचरण में आना चाहिए, तभी उसका अर्थ है। जिस विचार को व्यवहार में नहीं उतारा जा सके उसकी मान्यता नहीं होती। नीतियों के आधार पर मानक उदाहरण खड़े करना होगा।