खेती जीविकोपार्जन हो सकती है लाभ का धंधा नही

खेती जीविकोपार्जन का साधन तो बन सकती है पर लाभ का धंधा नहीं

 खेती को लाभ का धंधा बनाने की बात होती है जो अभी तक के प्रयासों से तो संभव नजर नहीं आती ।खेती जीविकोपार्जन का साधन जरूर है लेकिन लाभ का धंधा नहीं है । सबसे बड़ी विडंबना है इसके साथ सरकार का रुख जो मानवीय आधार पर उचित भी होता है लेकिन किसान के लिए नुकसानदेह। अभी हाल में प्याज के दाम पर बात की जाए तो अगर इसके दाम बढ़ते हैं तो किसान को लाभ होगा साथ ही यह भी सच है कि व्यापारियों को भी लाभ होगा क्योंकि भंडारण क्षमता तो व्यापारियों के पास ही है लेकिन लाभ किसान को भी होगा लेकिन जैसे ही दाम बढ़ते हैं सरकार इसको अपने कंट्रोल में ले लेती है। दाम कम करने की जिम्मेदारियां सरकार पर आ ही जाती है। धंधे का तो मतलब ही होता है कि कम दाम मे खरीदना और ज्यादा में बेचना लेकिन यहां जैसे ही दाम बढ़ने लगते हैं सरकार को अपने नियंत्रण में करना पड़ता है। सोने-चांदी, कार, कपड़ों पर ऐसा नहीं है।
  दूसरी बात खेती की लागत दिनों दिन बढ़ती जाती है अगर सरकार समर्थन मूल्य में ₹100 की बढ़ोतरी करती है तो खाद बीज दवाई कटाई और मजदूर सभी अपना रेट बढ़ा लेते हैं। किसान को फिर वही पुराना दाम ही मिल पाता है। पिछले 4 वर्षों से मैं भी कृषि कार्य पर ध्यान दे रहा हूं इसे मैंने काफी नजदीक से देखा है। खेती का रकबा या वृद्धि मूल किसानों के कारण नहीं बढ़ रही ।अधिकारियों, व्यापारियों तथा नेताओं द्वारा अपनी जमीनों पर सुविधाएं स्थापित की जा रहे हैं क्योंकि उनके पास पैसा है और यहां अधियां में किसान या भूमिहीन खेती कर रहे हैं। अधिकारियों व्यापारियों और नेताओं  का खर्चा अपनी दूसरी आमदनी से चल रहा है। इसलिए वह खेतों को अपनी आय को अपनी बचत के रूप में दिखाता है गेहूं और धान भी  इनके द्वारा ही बेची जाती। मूल किसान यहां भी परेशान होता है। जब मंडी में समर्थन मूल्य पर अपना अनाज बेचने जाता है तो प्रताड़ना की हद तक वह प्रताड़ित होता है क्योंकि दो पैसे बाजार से ज्यादा मिलने की उम्मीद पर वह सभी प्रताड़ना खरीदी केंद्र की सह लेता है। नेता व्यापारी अधिकारी तो अपने अपने रुतबे घूस देकर अपना काम चला लेते हैं। इनको पैसा देना अखरता भी नहीं है क्योंकि मेहनत इनके द्वारा की नही गई है लेकिन किसान की रुह कांप जाती है ।जब वह अपनी फसल बेचने के लिए पहले तो लाइन में लगता है परेशान होता है फिर घूंस भी देना पड़ता है और मैंने यह सब बड़ी नजदीक से देखा है ।तौलने वाले को राजश्री चाहिए, दारू पीने के लिए पैसा चाहिए , पर्ची काटने का पैसा  चाहिए फिर कम्प्यूटर मे चढ़ाने का पैसा चाहिए फिर बेचने का भी पैसा चाहिए। शोषण शोषण शोषण इसके अलावा कुछ नहीं शिकायत भी कहां करें ? सब  खरीदी केंद्रों मे तो सत्ता पक्ष के लोग होते हैं ।इनको चलाने वाले भी सत्ता पक्ष के लोग होते हैं। सरकार किसी की भी हो खरीदी केंद्र सत्ता पक्ष के लोगों को ही मिलता है ।
पहले तो खड़ी फसल को जानवरों के खाने का डर रहता है रात – रात भर  जागकर किसान अपनी फसल आवारा जानवरों से बचाता है लेकिन मंडी के जानवरों से वह किसी भी सूरत में नहीं बच पाता है। उसकी फसल का हिस्सा  यहां के जानवर चरते ही चरते हैं ।
खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिए खाद बीज डीजल सस्ता करना पड़ेगा।  आवारा जानवरों से खेती को बचाना पड़ेगा और फिर मंडी के जानवरों से ।
 सिचाई के लिए जब बिजली चाहिए तो इसका रोना आम हो जाता है भाजपा सरकार मे व्यवस्था सुधरी थी लेकिन इस बार की सरकार मे अच्छा नहीं हो पा रहा।  ट्रांसफार्मर खराब होता है तो  महीने महीने ट्रांसफार्मर नहीं बदला जाता है जिससे खेती खराब हो जाती है उसके बाद बिजली का बिल जमा करना किसान के लिए कठिन हो जाता है। सरकार को यह भी देखना होगा कि अन्न का सम्मान हो मुफ्त में राशन बांटते समय सरकार कोई भी हो याद रखना पड़ेगा कि यही राशन बाजार मे जाता है जिससे किसान का अनाज बाजार में अच्छे भाव में नहीं बिक पाता है ।वैसे खेती को लाभ का धंधा न सही कम से कम अच्छा बना लें यही ठीक रहेगा।
अजय नारायण त्रिपाठी “ अलखू “
28 नवंबर 2022
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