जन – गण – तंत्र पर हावी न होने पाए गन – मन – तंत्र

26 जनवरी 1950 को संविधान को अंगीकार तथा भारत को एक गणराज्य के रूप में स्थापित करना पुराने भारत के मूल स्वरूप को ही पुनः स्थापित करने का कार्य था। भारत पहले भी जन के द्वारा स्थापित गण समूह का गणराज्य रहा है उसी को वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने का प्रयास हुआ है। लेकिन जिन आशा आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए गण तंत्र स्थापित हुआ था उसको निराशा में बदलने का प्रयास भी लगातार गन( बंदूक ) और मन तंत्र के माध्यम से किया जाता रहा है ।जहां और जब तक गन (बंदूक) और मन तंत्र अनुशासन में रहता है वहांं तब तक जन गण तंत्र अपने स्वस्थ स्वरूप का लाभ देता है ।
इसलिए हमारा यह कर्तव्य बनता है कि प्रत्येक 26 जनवरी को हम इस बात को याद करें और पूरे वर्ष याद रखें कि जन – गण तंत्र, गन – मन तंत्र पर हावी रहे। गन और मन तंत्र को नियंत्रण में रखना इसलिए आवश्यक है कि हमें देश के चारों ओर से गाहे-ब-गाहे इनके दुरुपयोग की खबरें आती रहती है ।
भारत गणराज्य का भाग महाराष्ट्र अगर गैर मराठी को भगाने लगे और गैर मराठी महाराष्ट्र में जाकर अपने मन की करने लगे तो अव्यवस्था होना स्वाभाविक है और यह अव्यवस्था गणराज्य को कमजोर करने वाली एक चोट की तरह होती है।
 अभी 22 जनवरी को मैं भोपाल से नागपुर की यात्रा केरला एक्सप्रेस से कर रहा था ।नागपुर स्टेशन के 15 किलोमीटर आगे मेरी नींद खुली और पता चला कि अब अगले स्टेशन सेवाग्राम में ही वापसी के लिए उतरना पड़ेगा ।सेवाग्राम से नागपुर वापसी के लिए मै संघमित्रा एक्सप्रेस मे किसी तरह चढ़ा क्योंकि ट्रेन में इतनी ज्यादा भीड़ थी कि अंदर जाना मुश्किल हो रहा था। द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में मै चढ़ा और भारी भीड़ के साथ दरवाजे से सट कर चुपचाप कोने मे खड़ा हो गया। आमने-सामने के दरवाजे और शौचालय के बीच की जगह में करीब 22 लोग बैठे थे बाकी डिब्बा भी इतना ठसाठस भरा था कि जो जहां था वहीं रह सकता था निकलने के लिए पांव रखने की जगह नहीं थी। शौचालय और दरवाजे के पास बैठे इन 22 लोगों में से चार छह लोग पांव फैला कर भी बैठे थे और साथ ही साथ ताश खेल रहे थे ।लोगों के बैठने आने जाने की जगह नहीं थी वहीं यह लोग पांव फैलाकर ताश खेल रहे थे ।जिनका आरक्षण था उनकी मुसीबत भी समझी जा सकती थी शौचालय तक आना मुश्किल था दरवाजे से सटकर भी लोग बैठे थे आ भी जाओ तो अंदर जाना मुश्किल अंदर चले जाओ तो बाहर निकलना मुश्किल और बाहर निकल भी आओ तो अपनी सीट तक पहुंचना और भी मुश्किल ।ऐसे में लोगों का पांव फैला कर ताश खेलना मन तंत्र का खुला प्रदर्शन था।
 मेरे सामने ही टीटी का पूरा दल आया उसने इनसे टिकट मांगा ।टिकट उनके पास थी नहीं टीटी ने बोला कि एक तो बिना टिकट यात्रा कर रहे हो ऊपर से पांव फैला कर ताश खेल रहे हो लोगों के आने जाने में असुविधा हो रही है ।लेकिन वह भी अपनी हेकड़ी में थे बिहार दानापुर जा रहे थे यह है मन तंत्र की अवस्था हमारा मन चाहे जो करें इस सोच के कारण व्यवस्था छिन्न भिन्न होती है। लोगों का एक दूसरे से मनमुटाव होता होता है ।
मैंने उन लोगों से बात की पूछा कहां जा रहे हो कहां से आ रहे हो भीड़ में कुछ  लोग तो परीक्षा देकर आ रहे थे कुछ काम से वापस लौट रहे थे लेकिन टिकट नहीं लेंगे यह उनकी मर्जी थी। यह बात अलग है कि टीटी दल के सामने उनकी नहीं चली और महाराष्ट्र में होने कारण उनको टिकट बनवानी पड़ी । जब टीटी चले गए तो इनमें से कइयों ने बोला कि हमारा क्षेत्र नहीं है नहीं तो बताते।
मैंने बातों बातों में इनसे पूछा कि पहले के बिहार और अब के बिहार में कुछ परिवर्तन आया है सभी ने एक सुर में कहा कि रंगदारी का कम हुई है लेकिन रोजगार अभी भी नहीं हैं। मैंने पूछा कि उस रंगदारी से फायदा हुआ है कि अब फायदा है। उन्होंने बताया कि पिछली सरकारों द्वारा जो रंगदारी को बढ़ावा दिया गया उसका परिणाम आज पूरा बिहार भोग रहा है ।बिहार के लोग बाहर अच्छी अच्छी नौकरियों में है लेकिन पैसा बिहार में नही लगाते ।अगर बिहार के लोग जो देश-विदेश में अच्छे पदों पर कार्य कर रहे हैं बिहार में पैसा लगाएं तो बिहार की गरीबी दूर हो जाए ।उन्होंने ही कहा कि गुजरात और महाराष्ट्र में कानून अपना काम करता है यहां उद्योग धंधे हैं रोजगार है कुछ कमियां यहां भी है लेकिन रोजगार तो है। उनकी बातों से यह निष्कर्ष निकला कि बिहार के गन और मन तंत्र ने उसको पीछे धकेल  दिया है।यह एकमात्र उदाहरण है कि कोई भी राज्य हो जब इस दिशा में चलेगा तो उसको नुकसान तो उठाना ही पड़ेगा दूसरा उन राज्यों से भी उसको सम्मान नहीं मिलेगा जहां पर उसके लोग रोजगार में लगे हैं।
ट्रेन का ही दूसरा वाकया है जो मन तंत्र का उदाहरण है। बिना टिकट लगभग सात आठ लोग एसी डिब्बे में चढ़ते हैं इनमें सात आठ उनके और साथी हैं जिनके पास टिकट है तो कुछ का आर ए सी है ।यह सभी व्यापारी भाई  हैं ।कुछ दूर चलने के बाद इनकी बात टीटी से सीट के लेनदेन की होने लगती है किसी तरह को सीट की जुगाड़ होती है ।पैसे का लेनदेन होता है । टीटी अपने बर्थ इनको देता है, सहायक की बर्थ भी इनको मिलती है और बाकी जमीन में कंबल बिछाकर तकिया लगा कर सो जाते हैं ।यह सब सौदा चार हजार रुपये में होता है ।इसके आगे होता है मन -तंत्र शराब खोरी का ।यह सभी लोग जमकर ट्रेन में शराब पीते हैं रेलवे का सहायक तक टुन्न होकर  जमीन पर सोता रहता है ।वाँशवेसिन बोतलों से भर जाती है अब बाकी यात्रियों को जो समस्या हो रही है उससे किसी को लेना देना नहीं है ।
मन तंत्र का यह स्वरूप व्यवस्थाओं के सुचारु संचालन के लिए घातक है ।आपसी सद्भाव के लिए भी घातक है क्योंकि इसके बाद होने वाले विवाद कहीं न कहीं हमारे तंत्र को कमजोर करने वाले होते हैं ।रेलवे हमारे गणराज्य को आपस में जोड़ने वाली सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है इसलिए मैंने रेलवे का उदाहरण देना समीचीन समझा ।मध्य प्रदेश की बात भी कर ले तो कुछ समय से राजनैतिक कार्यकर्ताओं की हत्या का दौर सा चल पड़ा है ।सुरक्षा, औद्योगिक निवेश तथा सर्वांगीण विकास का जो एक अच्छा वातावरण  बना है उसे षड्यंत्रकारी तत्वों द्वारा बर्बाद किया जाने का यह प्रयास है।
सरकारी और निजी क्षेत्रों की जमीनों पर अतिक्रमण करना भी ऐसा ही मन तंत्र वाला कार्य है। सड़क के किनारे अतिक्रमण ,सड़कों की चौड़ाई खत्म कर निर्माण, हाईवे के सुरक्षित भाग पर अतिक्रमण भी गण राज्य के स्वरूप पर घातक प्रहार करते हैं।
 जो केवल अपनी सुविधानुसार जीना चाहते हैं जो भारत के टुकड़े करने के नारे लगाते हैं ऐसे तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग भी हमारे गणराज्य की नींव को लगातार कमजोर करने का कार्य करते हैं।जो लोग भी अपने दायित्वों का सही निर्वहन नही कर रहे वह सब इसी तरह के कार्य मे लिप्त वर्ग है। हम अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर गणराज्य को कमजोर न होने  दें ।भारतीय गणराज्य की मजबूती का दायित्व हम सभी पर है और हम सब को यह देखना पड़ेगा कि हमारे द्वारा अन्य जन के क्षेत्र में अतिक्रमण न हो ।क्योंकि जन ही गणराज्य का सर्वोपरि है गन या मन नहीं ।इसलिए हम सब जन – जन की बात करें अपने मन की नहीं।
अजय नारायण त्रिपाठी ” अलखू”
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