ठाकरे जी ने मेरी जीवन दृष्टि ही बदल दी – राजेन्द्र शुक्ल
रीवा में 17 सितम्बर को आयोजित
कुशाभाऊ ठाकरे स्मृति व्याख्यानमाला पर विशेष
सार्वजनिक जीवन में ऐसे विरले ही महापुरुष हुए हैं जिनकी जीवनशैली और आचरण ही उनका उपदेश और सिद्धांत बन गया। श्रद्धेय कुशाभाऊ ठाकरेजी इन्हीं में से एक हैं। इनके स्मरणमात्र से ही मैं ऊर्जान्वित हो जाता हूँ। आज भी जब कभी स्वयं को किसी अनिर्णय के चौराहे पर पाता हूँ तो उन मुश्किल क्षणों में ठाकरेजी और उनकी सीख याद आती है।
राजनीति मुझे विरासत में नहीं मिली, अलबत्ता मेरे पिताजी(प्रातःस्मरणीय स्व.भैय्यालाल शुक्ल) के सभी दलों के छोटे बड़े राजनेताओं से आत्मीयता का संबंध रहा। मेरे चाचाजी(स्व.उमाशंकर शुक्ल) मुझे राजनीति में आने के लिए प्रोत्साहित करते थे। यह संयोग ही था कि रीवा इंजीनियरिंग कालेज के मेरे सहपाठियों ने छात्रसंघ के चुनाव में खड़ा कर दिया और मैं अच्छे मतों से चुन भी लिया गया। यह राजनीति में पदार्पण ही था।
पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने पारिवारिक बिजनेस के साथ राजनीति में थोड़ी बहुत रुचि लेता रहा। एक तरह से इस दौर में विभाजित मन से दोनों काम करता रहा। चुनाव लड़ने और विधायक सांसद बनने की महत्वाकांक्षा नहीं रही, वजह रीवा के बड़े-बड़े नेता पहले से ही जमे जमाए बैठे थे।
मेरे जीवन में टर्निंग प्वाइंट लाने वाले स्वर्गीय सुंदरलाल पटवाजी थे। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने को कहा। मेरी मनःस्थिति नहीं बन पा रही थी कि उन्होंने मुझे श्रद्धेय ठाकरेजी से भेंट करा दी। सादगी की प्रतिमूर्ति ओज-तेज और उनके दिव्य व्यक्तित्व ने मेरे अंतस को प्रभावित किया। पटवाजी ने मेरे पिताजी के नाम से मेरा परिचय कराया। ठाकरेजी बोले- राजेन्द्र तुम्हारे जैसे युवाओं को भारतीय जनता पार्टी में होना चाहिए।
मेरी असमंजस स्थिति को भाँपते हुए उन्होंने कहा राजनीति सिर्फ चुनाव भर तक ही सीमित नहीं है, समाज और सार्वजनिक जीवन में इसके माध्यम से काफी कुछ किया जा सकता है, और फिर भाजपा समाज को लेकर समग्र और समदर्शी दृष्टि रखती है। यह बात सन् 98 की होगी। ठाकरेजी के व्यक्तित्व और उनकी वाणी में ऐसा आकर्षण था कि मैं उनकी ओर खिंचता ही चला गया और अंततः भारतीय जनता पार्टी का हो गया। ऊपर के नेताओं से ज्यादा जानपहचान नहीं थी। बस ठाकरेजी और पटवाजी, तीसरे थे रीवा के संभागीय संगठन मंत्री भगवतशरण माथुरजी जो समय-समय पर मार्गदर्शन करते थे।
भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के साथ ही मुझे जो स्नेह और सम्मान मिलने लगा, पूर्व के अनुभवों को देखते हुए वह अकल्पनीय था। वरिष्ठ नेताओं ने 98 में ही मेरा नाम रीवा लोकसभा के उम्मीदवार के लिए चलाया। कुछ ऐसी स्थितियां बनीं कि टिकट की अंतिम सूची तक नाम नहीं पहुंच सका। मेरे जैसे नए और साधारण कार्यकर्ता के लिए यही उम्मीद से बहुत ज्यादा था। इस घटनाक्रम ने मुझे राजनीति में पूरी तरह डूबकर काम करने के लिए प्रोत्साहित किया। हाँ इस बीच ठाकरेजी लगातार संवाद करते रहते, मनोबल बढ़ाते रहते थे। ठाकरेजी मुझे स्नेह देते हैं इसकी छाप संगठन में भी पड़ गई और अब मैं पार्टी के लिए न नया रह गया और न ही अपरिचित।
1998 का विधानसभा चुनाव आया। माथुर साहब ने मुझे चुनाव की तैयारी में जुटने के लिए कहा। मुझे यह मालुम था कि ऐसा ठाकरेजी और पटवाजी चाहते हैं। यह मेरा पहला चुनाव था। संगठन के लोगों को ही साधना मुश्किल काम था लेकिन भगवतशरण माथुर ने विपरीत स्थितियों को भी अनुकूल बनाने का काम किया। हम पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं और कालेज के जमाने के साथियों की पुरानी टीम को जोड़कर पूरे जोश-खरोश और दम के साथ लड़े। सामने कांग्रेस के उम्मीदवार रीवा राजपरिवार से थे जो पिछले दो चुनाव रेकॉर्ड मतों से जीत चुके थे। फिर रीवा में कभी भी जनसंंघ या भाजपा का खास आधार नहीं रहा। 1998 से पूर्व तक यहां का हर चुनावी मुकाबला काँग्रेस और सोशलिस्ट के बीच ही रहा। अलबत्ता 1990 के में सुंदरलाल पटवा जी के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार के बाद से पार्टी का विस्तार व आधार बनना शुरू हो चुका था। रीवा की विधानसभा और लोकसभा दोनों ही भाजपा की सर्वोच्च वरीयता में था। कांग्रेस के व्यूह को तोड़ना आसान न था। फिर भी इस चुनाव में निर्णायक लड़ाई लड़े और जीत का अंतर मामूली सा हो गया। इस चुनाव का हारना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सबक था। इस हार से काफी कुछ सीखा।
परिणाम आने के बाद सबसे पहले भगवतशरण माथुरजी ने फोन किया और उत्साह बढ़ाया कि चिंता की कोई बात नहीं इस चुनाव ने अगली विजय का रास्ता प्रशस्त कर दिया है। एक सप्ताह बाद श्रद्धेय ठाकरे जी का पत्र आया। ठाकरेजी ने सांत्वना नहीं बल्कि बधाई दी कि और कहा आगे और भी काफीकुछ करना है। राजनीति का मतलब सिर्फ चुनाव तक सीमित होकर रह जाना ही नहीं..। मनोयोग के साथ काम करते रहो अगली जीत तुम्हारी ही होगी। आगे चलकर ऐसा हुआ भी। 2003 के चुनाव में रीवा की जनता ने न सिर्फ कमी पूरी कर दी अपितु प्रदेश में सबसे ज्यादा मतों से जीत का सेहरा पहनाया। बहरहाल ठाकरेजी ने हर उस विपरीत समय में मेरा ख्याल बनाए रखा जहां उन्हें यह समझ में आता कि मैं कहीं हताश न हो जाउं.. मेरे ऊपर सदैव उनका दैवीय वरदहस्त बना रहा। आज वे इस दुनिया में नहीं हैं फिर भी हर वक्त उनका स्नेह और आशीर्वाद महसूस करता हूँ।
ठाकरेजी कार्यकर्ताओं को गढ़कर नेता बनाते थे। किसी के व्यक्तित्व और उसकी क्षमता का आँकलन करने की उनमें असाधारण क्षमता थी। आज पंद्रह वर्षों से मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार चल रही है यह ठाकरेजी जैसे महापुरुष की पुण्यायी का फल है। 1990 में अविभाजित मध्यप्रदेश के चुनाव में युवाओं की फौज को मैदान पर उतारने के पीछे ठाकरेजी की ही दूरदृष्टि थी। यह भी कह सकते हैं कि शिवराजसिंह चौहानजी, रमन सिंहजी व उनके समकालीन युवायोद्घा ठाकरेजी की ही खोज हैं। उनके बारे में वरिष्ठ नेताओं से सुनकर जाना कि किस तरह वे साइकिल से दौरे करते थे और एक जोड़ी कुर्ता-धोती के साथ चने खाकर भी गुजारा कर लेते थे। उन्हें विंध्य के एक-एक कार्यकर्ताओं के नाम याद थे। जबकि ठाकरेजी 1970 में ही राष्ट्रीय नेता बन चुके थे। 77 की मध्यप्रदेश की जनतापार्टी की सरकार के नियंता थे। बाद में खंडवा से सांसद भी चुने गए। यह कितने सौभाग्य की बात है कि जब वाजपेयी जी के नेतृत्व में केन्द्र में पार्टी की पहली बार सरकार बनी तब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री ठाकरेजी ही थे।
श्री ठाकरेजी की दृष्टि में पद-प्रतिष्ठा से ऊपर काम की निष्ठा रही। उन्होंने देशभर में ऐसे ही निष्ठावान कार्यकर्ताओं को गढ़कर शिखर तक पहुँचाया। मेरे 1998 का चुनाव हारने के बाद उन्हें मुझे लेकर एक चिंता थी कि कहीं हताश होकर घर न बैठ जाउँ और फिर पारिवारिक व्यवसाय में लग जाऊँ। संभवतः इसी विचार के चलतेआदरणीय भगवत शरण माथुर जी और ठाकरेजी ने मेरे रीवा अमहिया स्थित घर में ही भाजपा की संभागीय बैठक बुला ली। वे कुछ अस्वस्थ भी थे। मेरे घर में दो दिनों तक संभाग भर के नेताओं और कार्यकर्ताओं की चहलपहल रही। मुझे लगता है कि ठाकरेजी ने संगठन में मेरी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराने की इच्छा से ही यह कार्यक्रम चुना। संभागीय संगठन की बैठक सफलता पूर्वक संपन्न हुई। उन्हीं दिनों एक कार्यक्रम के सिलसिले में बतौर मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जी भी रीवा आए थे। उन्होंने आमसभा में ठाकरेजी व इस बैठक को लेकर तंज कसा था।
आज भाजपा व उसके नेताओं पर तंज कसने वालों का क्या हश्र है देश जानता है।
दो दिन की संभागीय बैठक के बाद जब ठाकरेजी मेरे घर से बिदा लेने लगे तो मेरे पिताजी से विनयवत् होकर कहा- शुक्लाजी मेरी वजह से दो दिन आपको काफी परेशान होना पड़ा, क्षमा करियेगा। पापाजी ने हाथ जोड़कर कहा- कैसी बात करते हैं ठाकरेजी, आप जैसे संतपुरुष का हमारे यहां पधारना यह परम सौभाग्य की बात है।
फिर एक और ऐसा वाकया आया जिससे उनकी महानता से परिचित होने का मौका मिला। मेरी माताजी का दिल्ली अपोलो में इलाज चल रहा था। वहीं पता चला कि ठाकरेजी भी यहीं भरती हैं। मैं वक्त निकालकर उन्हें देख आता था। बताया कि माता जी का इलाज कराने के लिए यहां हूँ। वे उस समय तो ज्यादा कुछ नहीं बोले पर दूसरे दिन जब उस प्रायवेट वार्ड में पहुँचा जहाँ माताजी भर्ती थीं तो पता चला कि ठाकरेजी आये थे, आधे घंटे तक रहे। ठाकरेजी चलने-फिरने की स्थिति में नहीं थे, मैंने उनके साथ के सहयोगी सेवक से पूछा तो उसने बताया कि ठाकरेजी ने कहा कि पता लगाओ राजेंद्र की माता जी कहां भर्ती हैं फिर मुझे ह्वीलचेयर में वहां बैठाकर ले चलो। ठाकरेजी ह्वीलचेयर में बैठे-बैठे लिफ्ट से तीन मंजिल नीचे उतरे और मेरी माता जी के पास पहुँचकर अपना परिचय देते हुए उन्हें जल्दी ही ठीक होने की सांत्वना दी। यह ठाकरेजी के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाने के बाद की बात है। ठाकरेजी जैसे शिखर व्यक्तित्व वाला मनुष्य मुझ जैसे छोटे कार्यकर्ता का इतना ख्याल रखे यह सिर्फ भाजपा में ही रहकर सोचा जा सकता है। ठाकरेजी का ऐसा सानिध्य प्राप्त करने वाला मैं अकेला नहीं अपितु देश में ऐसी संख्या हजारों में है।
ठाकरेजी ने सार्वजनिक जीवन में सादगीपूर्ण आचरण के साथ कर्तव्यनिष्ठा और देश तथा संगठन के प्रति समर्पण के जो प्रतिमान गढ़े हैं वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी रहेंगी।
।।उनकी स्मृतियों को कोटि-कोटि नमन।।